Wednesday, November 13, 2024
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गढ़वाली भाषा न आने का मलाल, रो पड़ी शोध छात्रा 

गढ़वाली भाषा न आने का मलाल, रो पड़ी शोध छात्रा 

 

 

 

डॉ0 वीरेंद्र सिंह बर्त्वाल

 

श्रीनगर । हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय में गढ़वाली भाषा पर आयोजित कार्यशाला में गढ़वाली भाषा की समृद्धि और विशिष्टताओं पर चर्चा हुई। अनेक भाषाविदों की उपस्थिति में शोध छात्रों को इस भाषा के संबंध में गहन जानकारियां मिलीं। गढ़वाली भाषा जानने वाले शोध छात्र सहजता से अपनी बात रख रहे थे, जबकि कुछ छात्रों को गढ़वाली न आने का मलाल था।

एक शोध छात्रा शुभांगी रावत का कहना था-’’मैंने कभी अपना गांव देखा ही नहीं। मेरे मम्मी-पापा तक भी अपने गांव नहीं गये। मुझे गढ़वाली बिल्कुल नहीं आती, जबकि गांव जाने और गढ़वाली सीखने की मेरी बड़ी तमन्ना है……’’ इतना कहते ही शुभांगी रावत का गला रुंध गया, वह आगे कुछ न बोल सकी और फफकर रो पड़ी।

सहारपुर के रिसर्च स्कॉलर अभिषेक राठौर टूटी-फूटी गढ़वाली में बातचीत कर रहे थे और उड़ीसा की पी अंजली भी गढ़वाली में ही बात करने का प्रयास कर रही थी। जिनको बिल्कुल भी गढ़वाली नहीं आती थी, उन्हें इस बात का गहरा मलाल हो रहा था।

यह दृश्य गढ़वाल विश्वविद्यालय के सभागार में गढ़वाली भाषा पर आयोजित कार्यशाला के समापन सत्र का था। उत्तराखंड लोकभाषा साहित्य मंच, दिल्ली और गढ़वाल विश्वविद्यालय के भाषा विभाग की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में भाषाविदों ने गढ़वाली को लेकर शोधार्थियों की जिज्ञासाओं का समाधान किया। अहम बात यह रही कि इस भाषा की शब्द सम्पदा, साहित्यिक समृद्धि और स्पष्टता पर आकर्षित हुए शोधार्थियों के मन में इसके प्रति स्नेह और श्रद्धा की अलग जग गयी। संबलपुरी मातृभाषा वाली उड़ीसा की अंजली और सहारनपुर के अभिषेक राठौर ने कुछ गढ़वाली गीतों को हवाला देकर हिंदी मिश्रित गढ़वाली में बोलना शुरू किया तो गढ़वाल के रहने वाले कुछ शोधार्थियों को गढ़वाली न आने का गहरा मलाल हुआ। अंजली ने बताया कि गढ़वाली और संबलपुरी के अनेक शब्द और क्रियायें आपस में मिलती हैं। हिंदी इन्हें मिलाने में सेतु का कार्य करती है। वे यहां कर काफी हद तक गढ़वाली सीख चुकी हैं। राठ, पौड़ी की रहने वाली शुभांगी ने अपना अनुभव बताते हुए कहा कि उसके माता-पिता पंजाब रहते हैं। वे आज तक गांव नहीं गये, उसका जाना तो दूर की कौड़ी है। उसने कहा-’’मैंने दादा जी से कहा कि एक बार मुझे गांव ले जाइए, उन्होंने कहा-श्रीनगर भी तुम्हारे गांव जैसा ही है। मुझे गढ़वाली के नाम पर फाणू जैसे दो चार-नाम ही आते हैं।’’ ऐसा कहते ही वह फफक पड़ी।

घाट, चमोली की अर्चना और उत्तरकाशी की संध्या पंवार ने गढ़वाली में वार्तालाप के माहौल को देख अपने-अपने इलाकों में प्रचलित गढ़वाली भाषा में बात की। रवांई के प्रमोद उनियाल और उनकी पत्नी गुंजन उनियाल इसी विश्वविद्यालय में शोध-छात्र हैं। दोनों ने अपनी अभिव्यक्ति रवांल्टी में दी, लेकिन दोनों रवांल्टी भी एक-दूसरे से भिन्न थीं। शैलजा सजवाण ने उत्तरकाशी में प्रचलित गढ़वाली में बताया कि बारहवीं की पढ़ाई तक वह घर में रही। तब उसे अच्छी गढ़वाली आती थी। यह गढ़वाली कहीं मेरी अन्य भाषाओं को सीखने की राह में बाधक न बन जाए, इसलिए अब इसका प्रयोग कम करती हूं, परंतु अब भाषाओं को सीखने के लाभ जानने के बाद मैं पुनः गढ़वाली की ओर उन्मुख हो गयी हूं। सूरज चंद ने पौड़ी, शुभम थपलियाल ने टिहरियाली-नागपुरिया मिश्रित गढ़वाली में अभिव्यक्ति दी तो शैलजा सजवाण ने गढ़वाली कविता के माध्यम से गढ़वाली समाज की विद्रूपताओं पर सवाल खड़े किये। उपगढ़, लोस्तु की नेहा कैंतुरा ने बडियारगढ़ी गढ़वाली में बताया कि गांव जाकर उन्हें गढ़वाली के महत्त्व का पता चलता है। जम्मू (भद्रवाह) के राजेंद्र सिंह का अनुभव यह था कि गढ़वाली हिंदी के निकट होने के कारण उन्हें इसे सीखने में आसानी रहती है। चमोली की हेमंती उप्रेती, गुंजन बडोनी और रेशमा पंवार ने आवश्यकता जताई की गढ़वाली को जीवित रखना है कि इसका फोकस शहरों पर करना होगा, गांव के लोग तो अभी भी गढ़वाली के संरक्षक हैं।

शोध-छात्रों की अभिव्यक्ति का एक अपेक्षित परिणाम यह मिला कि लगभग 15 स्वरूपों वाली गढ़वाली का यहां पर एक संगम हो गया और एक-दूसरे को विभिन्न स्वरूपों वाली गढ़वाली को समझने में बहुत अधिक कठिनाई भी नहीं हुयी। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे भाषाविद् डॉ0 विष्णुदत्त कुकरेती के साथ ही साहित्यकार रमेश घिल्डियाल और डॉ0 नंदकिशोर हटवाल ने बच्चों को बताया कि मानकीकरण का यही परिणाम निकलेगा कि इस भाषा के विभिन्न स्वरूप बरकरार रहते हुए भी उन्हें समझने-बूझने में किसी को कठिनाई नहीं होगी।

वहीं,शुभांगी रावत ने बताया कि ’मुझे खुशी और गर्व है कि अपनी मातृभूमि में स्थित विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रही हूं। मुझे उम्मीद है कि अब मैं अपने सहपाठियों और मित्रों के साथ गढ़वाली सीख सकूंगी। इसके लिए मैंने प्रयास शुरू कर दिया है। जब मैं अपने मम्मी-पापा के पास जाऊंगी तो मेरे पास गढ़वाली के बहुत से शब्द भी होंगे।

दूसरी ओर, साहित्यकार तथा संयोजक उत्तराखंड लोकभाषा साहित्य मंच, दिल्ली के संयोजक दिनेश ध्यानी बताते हैं कि गढ़वाली भाषा का मानकीकरण करवाना और आठवीं अनूसूची में शामिल करवाना हमारा दो सूत्री कार्यक्रम है। ऐसा होने के बाद यह भाषा रोजगार का बड़ा साधन बनेगी और कभी टिहरी रिसायत की राजभाषा रही इस प्राचीन भाषा का संरक्षण हो पाएगा। दिल्ली में गढ़वाली सिखाने की पाठशालाएं शुरू करने के बाद अब वृहद् स्तर पर गढ़वाल में भी यह अभियान चलाने जा रहे हैं। शोध-छात्रों की अभिव्यक्ति से लगता है कि हमारी कार्यशाला सफल रही है।

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