पुराने भारत की ओर लौटने की आवश्यकता, गढ़वाल विवि के पौड़ी परिसर में संस्कृत विभाग की संगोष्ठी में पढ़े 45 शोधपत्र
पुराने भारत की ओर लौटने की आवश्यकता, गढ़वाल विवि के पौड़ी परिसर में संस्कृत विभाग की संगोष्ठी में पढ़े 45 शोधपत्र
डॉ.वीरेंद्र सिंह बर्त्वाल देवप्रयाग- हेमवती नंदन गढ़वाल विश्वविद्यालय के डॉ0 बीजीआर कैंपस पौड़ी में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में स्वस्थ समाज और राष्ट्र के लिए सांस्कृतिक मूल्यों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया। विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों से आये विद्वानों और शोधार्थियों ने अपने विशिष्ट व्याख्यानों और शोधपत्रों के माध्यम से कहा कि भारतीय संस्कृति में निहित नैतिक मूल्य आज आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक और आवश्यक हैं। ’भारतीय संस्कृति में निहित मौलिक मूल्य तथा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में उनकी प्रासंगिकता’ शीर्षक पर आयोजित इस संगोष्ठी में विद्वानों ने कहा कि सर्वेभवंतु सुखिनः की भारतीय संस्कृति किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व की सुख-शांति और समृद्धि की प्रार्थना जैसे तत्त्वों से संपृक्त है। यही वास्तविक मानव धर्म है, जो सनातन संस्कृति का उदात्ततम स्वरूप भी है।
डॉ0 बीजीआर परिसर के संस्कृत विभाग के तत्त्वावधान में आयोजित संगोष्ठी के उद्घाटन अवसर पर मुख्य अतिथि केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर के निदेशक प्रो0 पीवीबी सुब्रह्मण्यम ने कहा कि संस्कृत भाषा हमारे प्राचीन ज्ञान की संवाहक है और इसीके के माध्यम से आधुनिक समाज के नैतिक और बौद्धिक ज्ञान का विकास संभव है। उन्होंने कहा कि वास्तविक ज्ञान वही है, जिसमें संपूर्ण प्राणियों और पर्यावरण के कल्याण और संरक्षण की हित की बात हो। इस कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि प्रो0 पीपी बडोनी थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ0 बीजीआर परिसर के निदेशक प्रो0 यूसी गैरोला ने कार्यक्रम संयोजक डॉ0 दिनेशचंद्र पाण्डेय (सहायक आचार्य संस्कृत) को इस आयोजन के लिए बधाई देते हुए कहा कि संगोष्ठी का विषय आज के समाज के लिहाज से बेहत उपादेय है। कार्यक्रम समन्वयिका संस्कृत विभागाध्यक्षा प्रो0 कुसुम डोबरियाल ने संगोष्ठी का उद्देश्य प्रस्तुत किया।
विभिन्न सत्रों में आयोजित संगोष्ठी में विशिष्ट वक्ता डॉ0 सच्चिदानंद स्नेही (सह आचार्य न्याय विभाग, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर) ने कहा कि भारतीय संस्कृति हमारी सभ्यता और नैतिक मूल्यों की मूल आधार है। भारतीय संस्कृति संस्कृत में निहित है। वेदांत में 14 अखाड़ों की परंपरा का दर्शन है। भारतीय संस्कृति सहिष्णुता का पर्याय है। उसने चार्वाक जैसे ’ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’ जैसे दर्शन को भी स्वीकारा है। जैन-बौद्ध दर्शन भी वेदों के सिद्धांतों से लिये गये हैं। भारतीय संस्कृति में मोक्ष की सुंदर परिभाषा दी गयी है। यइ इहलोक और परलोक दोनों के लिए उपादेय है। हमारा दर्शन कहता है कि सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं तो दूसरों को भी सम्मान दो। यह शांति स्थापना का मूल मंत्र है। डॉ0 स्नेही ने कहा कि सभी भारतीय दर्शनों ने सत्य और अहिंसा को स्थान दिया है। अपराध रोकने में आज ये नैतिक मूल्य बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
डॉ0 सतीश कुमार तिवारी ने कहा कि आज हमें भारत की भौगोलिकता के संदर्भ में विष्णुपुराण वाली व्याख्या स्वीकार करनी होगी, न कि यूरोपीय परिभाषा। हमारी संस्कृति में निरंतरता, निष्पक्षकता, सार्वभौमिकता और पुरुषार्थ इत्यादि नैतिक मूल्यों के पर्याय हैं।
डॉ0 सरवर कमाल ने कहा कि आज का भारत आभासी हो गया है। हमें पुराने भारत के मूल्यों को अंगीकार करने की आवश्यकता है। आज की पीढ़ी संक्रमित है, उसकी सोच गलत दिशा में जा रही है। आपसी प्रेम समाप्त हो रहा है। पर्यावरणीय संकट बढ़ रहा है। सामाजिक, शारीरिक और मानसिक समस्यायें बढ़ रही हैं। हमें नैतिक मूल्यों के क्षरण को बचाना होगा।
चेतन पुरोहित ने कहा कि इस डिजिटल युग में सुविधायें बढ़ गयी हों, लेकिन मानवता और समाज इससे जबरदस्त तरीके से दुष्प्रभावित हो गया है। डिजिटल माध्यमों को इस कदर मोड़ा जाए कि हमारी संस्कृति का संरक्षण भी हो सके।
हिंसा की परिभाषा देते हुए डॉ0 सुशील प्रसाद बडोनी ने कहा कि किसी को मन, वचन और कर्म से आघात पहुंचाना हिंसा है और हिंसा का कारण मन पर नियंत्रण न होना है। अहिंसा को ही परम धर्म कहा गया है। जगदंबा जसोला ने ज्ञान के क्षेत्र में विद्या का महत्त्व बताते हुए कहा कि एक विद्या शास्त्र की और दूसरी विद्या शास्त्र की होती है। किसी भी मनुष्य की पूजा का कारण उसका शरीर नहीं, बल्कि उसके गुण, ज्ञान और विद्या है। आज शिक्षा अर्जन में वर्गभेद होना चिंता का विषय है।
डॉ0 नवनीत विष्ट ने कहा कि हमारे आध्यात्मिक मार्ग में बाधा पहुंचाने वाले तत्त्वों की पहचान होना अत्यंत आवश्यक है। हमारी वास्तविक उन्नति आध्यात्मिक और आत्मिक क्षेत्र की उन्नति ही है।
डॉ0 वीरेंद्र सिंह बर्त्वाल ने ’गंगा: उत्तराखंड की संस्कृति का आधार’ शीर्षक वाला शोधपत्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि गंगा उत्तराखंड के लोकजीवन का अविभाज्य भाग है। गंगा से उत्तराखंड के लोगों का घनिष्ठ संबंध होने के कारण उसने लोकोक्तियों, मुहावरों, लोककथाओं और लोकगीतों में बड़ा स्थान आरक्षित कर लिया है।
डॉ0 अमंद मिश्र, डॉ0 दीपक कोठारी, डॉ0 जनार्दन सुवेदी, डॉ0 रविंद्र उनियाल, डॉ0 सुरेश शर्मा आदि ने भी अपने शोधपत्रों के माध्यम से कहा कि आज हमने यद्यपि बहुत सीमा तक आर्थिक विकास कर लिया हो, लेकिन आज विश्वशांति और मानसिक सुकून की बड़ी आवश्यकता है। इसमें हमारी भारतीय संस्कृति में निहित मूल्य ही कारगर भूमिका निभा सकते हैं। भारत की नई शिक्षा नीति में इन्हीं मूल्यों की पुनर्स्थापना की पहल की गयी है। यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार की सुंदर पहल है। कार्यक्रम संयोजक डॉ0 दिनेशचन्द्र पाण्डेय ने बताया कि इस दो दिवसीय संगोष्ठी में संस्कृत, हिंदी तथा अंग्रेजी में लगभग 45 शोधपत्र पढ़े गये।