Friday, May 23, 2025
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डॉ. बर्त्वाल ने बताया क्या है फूलदेई त्योहार का महत्व, पहाड़ में अनूठा है फूलों का यह पर्व_डॉ. बर्त्वाल

उत्तराखंड

फूलों का त्योहार फूलदेई
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उत्तराखंड प्रकृति के अत्यंत निकट बसता है। इसलिए वह प्रकृति से घनिष्ठ संबंध रखता है। उसके अनेक पर्व और त्योहारों में प्रकृति की भीनी-भीनी सुगंध बिखरती है।

यहां का लोक पर्व ‘फूलदेई’ भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है। यह त्योहार चैत्र मास के प्रारंभ होते ही शुरू हो जाता है और पूरे महीने चलता है। छोटे-छोटे बच्चे पौ फटने से पहले ही ब्रह्ममुहूर्त में छोटी-छोटी टोकरियों में रंग-बिरंगे फ्योंली इत्यादि के फूल चुनकर लाते हैं और उन्हें सभी घरों की देहरियों में आच्छादित कर देते हैं। प्रातः काल को जब लोग उठकर दरवाजा खोलते हैं तो उन्हें रंग- बिरंगे चित्ताकर्षक फूल दिखाई देते हैं। इससे उनका मन प्रसन्नता से भर जाता है। यह त्योहार एक प्रकार से लोक के शुभत्व की कामना का प्रतीक है और आपसी भाईचारे,सहिष्णुता का संदेश देता है। उत्तराखंड में सौर पंचांग चलता है, इसलिए चैत्र मास के प्रथम प्रविष्टि से नववर्ष का आरंभ यहाँ माना जाता है। फूलदेई का त्योहार यहाँ नववर्ष के उत्साह के रूप में मनाया जाता है। चैत्र महीने के अंतिम दिन लोग बच्चों को गुड़,चावल,घी, पैसे इत्यादि देते हैं। बच्चे इन सामग्रियों को एक साथ पकाकर घोगा देवता को प्रसाद चढ़ाते हैं और इसके बाद स्वयं ग्रहण करते हैं। इस प्रकार यह त्योहार नव वर्ष के स्वागत का प्रतीक भी है। पहाड़ में इन दिनों इस लोक पर्व की धूम है। विशेष बात यह है कि यह उत्तराखंड के दोनों मंडलों गढ़वाल और कुमाऊं जिन्हें केदारखंड और मानस खंड कहा गया है,में यह पर्व उल्लास के साथ मनाया जाता है। पहाड़ के गांवों की सुबह इन दिनों निश्छल मन वाले बच्चों के निश्छल घोष ‘घोगा माता फ्योंली फूल’ तथा ‘फूलदेई छम्मादेई’ से गुंजायमान रहती है। सूर्योदय से पहले देहरियां बुरांस,फ्योली,पंय्या जैसे पीले,लाल और बैंगनी फूलों से अट जाती हैं। कहीं-कहीं फूल डालने के अंतिम दिन ‘अंयारकुट्टू’ नामक त्योहार भी मनाया जाता है। इसे मनाने का कारण पशुओं को घास,चारे से लगने वाले विष से बचाना है।

उल्लेखनीय है कि पहाड़ का वसंत अत्यंत उल्लसित करने वाला होता है। चैत्र मास में प्रकृति शृंगार सुसज्जित लावण्यमयी नवयौवना की तरह होती है। उसका अंग-प्रत्यंग म्योली और हिलांस जैसे पक्षियों, मधुमक्खियों की गुंजाहट के संगीत पर थिरकते रहते हैं। ढालवादक औजी भी इस महीने आंगनों में ढोलवादन कर ग्रामीणों से अन्नादि उपहार प्राप्त करते हैं। वे धियाणियों की ससुराल जाकर लकमान,बढाईं की परम्परा का निर्वाह भी करते हैं। ससुराल ब्याही बेटियों,बहनों को इन दिनों भिटौली दिए जाने की परंपरा के अंतर्गत मिठाई,अन्य पकवान और वस्त्र इत्यादि दिए जाते हैं।
ग्रामीण इन दिनों खेती के कार्यों से फुर्सत पाकर जौ-गेहूँ की बढ़ती पौध को देख हर्षित हुए रहते हैं। ऐसे में यह त्योहार उत्साह को और उदात्त बना देता है। पहाड़ के वसंत पर असंख्य काव्य-गद्य रचनाएं गढी और पढी़ गयी हैं। यह सिलसिला पहाड़ और वसंत के अस्तित्व तक अनवरत रहना चाहिए। पहाड़ के ख्यातिलब्ध लोकगायक नरेन्द्रसिंह नेगी इसीलिए तो गाते हैं-रुणक झुणक रितु बसंत गित लगांदी ऐग्ये……मेरी डांडी कांठ्यों का मुलुक जैल्यू,बसंत रितु मा जैयी….हे जी सार्यों मा फूलीगे होली फ्योंलडी़ मैं घौर छोड्यावा….। वसंत में संयोग और विप्रलंब शृंगार रस से सिक्त इस धरा पर कुछ भी रिक्त नहीं दिखायी देता है।

साहित्याचार्य डॉ.शैलेन्द्रनारायण कोटियाल जी इस पर्व के अनेक धार्मिक और लौकिक आधार बताते हैं। उनके अनुसार इस त्योहार का अनूठापन उत्तराखंड को सांस्कृतिक आधार पर अनूठा बनाता है।
सारांशतः कहा जा सकता है कि पहाड़ के पर्व प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के माध्यम हैं,जिनमें लोककल्याण की भावना आधारित ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के सूत्र निबद्ध हैं। इनमें ईश्वरीय उपहारों को सहर्ष स्वीकार कर प्रकृति के साथ सहचर्य का निर्वाह करने का भी प्रतिबिम्बन होता है।

-डॉ.वीरेंद्रसिंह बर्त्वाल
(असिस्टेंट प्रोफेसर,जनसंपर्क अधिकारी)
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर,देवप्रयाग

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