उत्तराखंडबिज़नेस

उत्तराखंड के परंपरागत भोजन को मुख्यधारा से जोड़ने का द्वारिका प्रसाद सेमवाल का भगीरथ प्रयास

उत्तराखंड के परंपरागत भोजन को मुख्यधारा से जोड़ने का द्वारिका प्रसाद सेमवाल का भगीरथ प्रयास

 

हिमालयी अंचल में अवस्थित गढ़भूमि प्रण और प्रयासों की अद्वितीयक भूमि रही है। इसी भू-भाग के सीमांत उत्तरकाशी के एक छोर पर बैठकर इक्ष्वाकुवंशीय सम्राट दिलीप के पुत्र भगीरथ जिन्हें गंगा को धरती पर लाने का श्रेय जाता है, ने कठोर तप किया था। लगता है उनके तप का ताप किसी न किसी अंश में यहाँ की हवा-पानी और मिट्टी में अब भी विद्यमान है। तभी तो इसी उत्तरकाशी जनपद के दूरस्थ ग्राम्य अंचल में जन्मा-पला-बढ़ा एक बालक जो बालपन से पिता को अपने ढाबे पर लाल चावल, झंगोरे की खीर, लेंगडे़ की सब्जी, चैसा, कापला, घेन्जें व खुल्य की पकौड़ी परोसते हुए देखता है। स्वाद चखता है।

इनके उत्पादन से जुड़े लोगों की आमदमी और पिता को होने वाले मुनाफे की गणित समझता है। पहाड़ी उत्पादों के प्रति लोगों की रूचि व आकर्षण के कारणों से तलाशता है और एक समझ बनाता है कि पर्वतीय प्रांत के ग्राम्य अंचलों में पैदा होने वाले इन जैविक उत्पादों अर्थात मोटे अनाज को यदि उचित बाजार उपलब्ध करवाया जाए तो यह स्थानीयजनों की आजीविका के बेहतर विकल्प बनकर उभर सकते हैं। पीज़ा, बर्गर, चाऊमीन, मोमो वाली पीढ़ी अपने परंपरागत भोज्य पदार्थों के स्वाद-सुगंध व पौष्टिकता से लाभान्वित होगी और इनकी सुवास से अपनी गढ़भूमि पुनः सुवासित हो उठेगी।

ऐसी ही बहुत-सी बातों-विचारों के साथ ‘हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान’ के द्वारिका सेमवाल दृढ़ संकल्पित होकर इनके प्रचार-प्रसार में जुट जाते हैं। वर्ष 2000-01 में काशी विश्वनाथ की नगरी उत्तरकाशी में होने वाले ‘माघ मेले’ से स्वयं सहायता समूह के सहयोग से परंपरागत पकवानों का स्टाल लगाकर एक नई शुरुआत करते हैं। दिन, महीने, साल बीतते जाते हैं लेकिन उनके कदम नहीं डगमगाते हैं। तमाम उतार—चढ़ाव के बाद भी वह इस सुपथ पर बने रहते हैं। फलत: 20-22 वर्षों की इसी अनवरत साधना के चलते 7 अक्टूबर, 2023 को जिस संकल्पना के साथ वह ‘गढ़भोज दिवस’ मनवाकर अपने परंपरागत भोजन के स्वाद-सुवास से गढ़भूमि को महकाना चाहते थे, उससे गढ़भूमि के साथ-साथ देश—परदेश के कई हिस्से महक उठते हैं। जो उन्हीं के अथक परिश्रम का सुखद प्रतिफल है।

इसी तिथि को सीमांत उत्तरकाशी के ओसला-गंगाड़ से लेकर धारचूला-मुनस्यारी और दूरस्थ चमोली के नीती-माणा से लेकर खटीमा-ऊधमसिंह नगर तक के विद्यालयों में पी.एम.पोषण योजना के अंतर्गत गढ़ भोज से सुसज्जित थाल परोसने संबंधी विभागीय आदेश हों या महाविद्यालयों में बाहर आती गढ़भोज दिवस संबंधी तस्वीरें व समाचार सभी अभियान की सफलता की तस्दीक करती दिखायी देती हैं। कई कालेजों से गृह विज्ञान की प्रयोगात्मक परीक्षाओं के दौरान गढ़भोज संबंधी तस्वीरें भी बेहद आनन्दित-उत्साहित एवं आकर्षित करने वाली रही हैं। जिसका श्रेय अभियान के प्ररेणा द्वारिका सेमवाल को ही जाता है।

द्वारिका भाई भलीभांति जानते थे कि ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ या कहें कि जन-सहभागिता के बिना किसी भी अभियान के सफलता की संकल्पना मात्र भी नहीं की जा सकती है। इसलिए वह गाँव-नगर, कस्बा-शहर भ्रमण करते रहते हैं। डुगडुगी बजाते हैं। लोगों से संवाद करते हैं। परंपरागत पकवानों के गुण, महत्व एवं उपयोगिता से अवगत करवाते हैं। विभिन्न अवसरों पर जगह—2 परंपरागत अनाज एवं पकवानों के स्टाल सजाते हैं। कन्याकुमारी से देहरादून और न्यूजलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल से देहरादून के लिए साईकिल उठाकर यात्रा पर निकल पड़ते हैं और इन साईकिल यात्राओं के दौरान प्राप्त अनुभवों को वह अभियान के लिए बेहद उपयोगी बताते हैं।

वह चाहते हैं कि मेले-थौले हों या सरकारी, गैर-सरकारी आयोजन, बैठक-सेमीनार हों या सभा-संगोष्ठियाँ, विद्यालय हो या सरकारी भोजनालय, गढ़भोज सब जगह शामिल हो। तीर्थाटन, पर्यटन और चारधाम यात्रा के बहाने देश विदेश के अलग—अलग हिस्सों से देवभूमि पहुँचने वाले श्रद्धालु भी यहाँ के परंपरागत भोजन के स्वाद-सुगंध से परिचित हों, ऐसी व्यवस्था बने। इनके लिए वह खूब पसीना बहा रहे हैं। वर्ष 2009 में पहली बार उन्हें इस रूप में सफलता प्राप्त हुई कि वह गंगोत्री-यमुनोत्री, बद्री-केदारनाथ यात्रा मार्ग पर पाँच-पाँच होटल या ढाबा संचालकों को इस बात के लिए राज़ी करवा पाए कि वे अपने खाने के मीनू में गढ़भोज को शामिल करते हैं।

वर्ष 2020-21 में उत्तराखण्ड पुलिस की मेस के साप्ताहिक भोजन में एक दिन गढ़भोज शामिल करवाने तथा वर्ष 2023 में प्रदेशभर के विद्यालयों में 7 अक्टूबर को ‘गढ़भोज दिवस’ मनवाने की दिशा में प्राप्त सफलता भी उल्लेखनीय है। गौरतलब है कि 7 अक्टूबर को गढ़भोज दिवस मनाये जाने की शुरुआत भले ही वर्ष 2022 से हुई हो लेकिन उससे पहले अभियान के 20 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में वर्ष 2021 को ‘गढ़भोज वर्ष’ के रूप में मनाया जा चुका है।

‘गढ़भोज अभियान’ के संबंध में वह बताते हैं- ‘यूं तो हम इसे पहाड़ी भोजन भी कह सकते थे लेकिन पहाड़ी प्रांत तो और भी हैं फिर हम कैसे स्पष्ट कर पाते कि हम किसी पहाड़ी भोजन की बात कर रहे हैं। इस दुविधा से बचने के लिए हमने गढ़वाल, कुमाऊँ, रवाँई-जौनसार के साथियों के साथ मिलकर उत्तराखण्ड के परंपराग भोजन के लिए ‘गढ़भोज’ नाम तय किया और वर्ष 2000 से इसे ‘गढ़भोज अभियान’ के रूप में संचालित किया जा रहा है। इसलिए गढ़भोज समूचे उत्तराखण्ड के परंपरागत पकवानों का प्रतिनिधित्व करता है।
उत्तराखंड के परंपरागत भोजन को चूल्हे से पांच सितारा और किवदंती से स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने तक के भगीरथ प्रयास के लिए सलाम।
’ द्वारिका भाई के इन अथक प्रयासों को देखकर दुष्यंत कुमार लाइने कोन कहता है आसमान में छेद नही होता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *