Friday, January 17, 2025
Latest:
उत्तराखंड

घंटाकर्ण और 40 साल बाद की केदार यात्रा

घंटाकर्ण और 40 साल बाद की केदार यात्रा
——————————————————-
आस्था की शक्ति असीम है। विज्ञान भले ही तर्क ढूंढ़ता है, पर श्रद्धा के आगे तर्क मूल्यविहीन हो जाते हैं। श्रद्धावान हर शुभ घटना को चमत्कार मानते हैं, यद्यपि स्वयं को प्रगतिशील बताने वाले इसे संयोग नाम देते हैं। जनश्रुतियों, लोककथाओं और लोकविश्वासों में अपने चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध रहा लोस्तु का घंटाकर्ण देवता इन दिनों फिर चर्चा के केन्द्र मंे रहा। लगभग 40 वर्ष बाद देवता की परम्परागत केदार यात्रा संपन्न हुयी। लगभग 350 लोग सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्त्व की इस निर्विघ्न यात्रा के साक्षी बने। लगभग 350 किलोमीटर की इस यात्रा को पैदल और वाहनों से तय किया गया। 6 रात्रि पड़ावों वाली यह यात्रा 24 अप्रैल को देवता के थान (स्थान) से आरंभ हुयी थी, जो 30 अप्रैल को यहीं पर सम्पन्न हो जाएगी।
टिहरी गढ़वाल के कीर्तिनगर विकासखण्ड के घंडियालधार में प्रतिष्ठापित घंड्याळ देवता के यहां अवतरण और स्थापना का इतिहास रोचक और विभिन्न चमत्कारों से युक्त है। यह जनश्रुतियों और लोकगाथाओं पर आधारित है। सैकड़ों वर्ष पहले इस मंदिर की स्थापना हुयी थी, लेकिन तिथि और वर्ष का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। शायद उन लोगों ने तब इसकी आवश्यकता भी नहीं समझी होगी।


देवता के मंदिर में प्रति छह और 12 वर्ष बाद (कुंभ) में यज्ञ अनुष्ठान होता है। पूजा वर्ष में दो बार होती है। घंटाकर्ण के साथ हनुमान, नागराजा इत्यादि अन्य देवी-देवताओं का भी अवतरण और पूजा होती है। यह पूरा आयोजन मंदिर समिति करती है। लगभग 30 गांवों की लगभग डेढ़ दर्जन जातियों के लोग देवता की पूजा में शामिल होते हैं। मंदिर पहले मिट्टी-पत्थर का छोटा था, किंतु अब विशेष कटवा पत्थरों का भव्य मंदिर बना दिया गया है। देवी-देवताओं के पस्वा, रावल, निजवाला, कंडी वाहक, आचार्य, ढोलवादक सभी परम्परागत विधि और नियमों के अंतर्गत नियुक्त किये जाते हैं।
मंदिर समिति के महासचिव उम्मेदसिंह मेहरा बताते हैं कि इतने अधिक गांवों के परिवारों को एक मुट्ठी में करना आसान नहीं है, लेकिन न जाने क्या चमत्कार है कि सब कुछ नियंत्रित हो जाता है। 1983 में देवता की केदारयात्रा हुयी थी। उसके बाद गंगास्नान यात्रा तो कई बार हुयी, पर केदारयात्रा इस बार लगभग 40 साल बाद हो पायी है। सभी व्यवस्थायें उत्तम थीं। जगह-जगह भक्तों ने देवता और नेजा-निसाणों का भव्य स्वागत किया। सड़कों के बन जाने से चिरबटिया-लोस्तु पैदल मार्ग जर्जर हो चुका था, परंतु सभी यात्री वहीं से आये हैं।
मंदिर समिति के अध्यक्ष 79 वर्षीय कैप्टन सत्ये सिंह भण्डारी भी यात्रा में हर समय मोर्चा संभाले रहे। इस आयु में युवाओं जैसे जोश के साथ कार्य करने वाले श्री भंडारी जी को भी लोग एक साक्षात चमत्कार मानते हैं। यात्रा की पल-पल की खबर सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित करने वाले रामेश्वर बर्त्वाल तथा यातायात व्यवस्था का जिम्मा देख रहे धर्मसिंह बर्त्वाल के विभागीय प्रबंधन की भी सराहना हुयी है।
यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि आज से 40 वर्ष पहले आज जैसी सुविधाओं का नितांत अभाव था। तब भी लोग देवता के भरोसे यात्रा करते थे और आज सुविधाओं की उपलब्धता के बावजूद देवता पर ही विश्वास है। इतनी बड़ी यात्रा को निर्विघ्न सम्पन्न कराना बड़ी चुनौती था। मंदिर समिति ने यह कार्य कर अपनी कार्यकुशलता और बेहतरीन प्रबंधन का परिचय दिया है। वैसे भी पहाड़ में देवता पूजन के बाद क्षमायाचना मंत्र की जगह एक वाक्य बोला जाता है-भूल बिसर तू जाणी इसुर। अर्थात् हे ईश्वर! कोई भूल हुयी तो हमें क्षमा कर देना।…और यहां के देवता इस वाक्य को ही पूजा की सफलता का मंत्र मानकर तुष्ट हो जाते हैं।

– डॉ0वीरेन्द्रसिंह बर्त्वाल, देहरादून

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *